वृंदावन से
संस्कार और अहंकार
-गोवर्धन थपलियाल
हम अपनी उन सांस्कृतिक परंपराओं को छोड़ते जा रहे हैं जिनसे हमारी स्थापित पहचान थी।
हमने तिलक, जनेऊ, शिखा रखना छोड़ दिया और महिलाओं को भी, अब माथे पर बिंदी, हाथ में चूड़ी और गले में मंगलसूत्र पहनने में लज्जा आने लगी है। पहले कोरा मस्तक और सुने कपाल को अशुभ, अमंगल का और शोकाकुल होने का चिह्न माना जाता था।
तुलसी कबहुँ न त्यागिए, अपने कुल की रीति।
लायक ही सो कीजिए, ब्याह, बैर अरु प्रीति ।
हमने अपने कुल की रीत को छोड़ दिया है।
कहते हैं कि सोच बदली जा सकती है पर संस्कार तो किसीको भी उसकी परवरिश किस माहौल में हुई है और आपका परिवार कैसा है , को दर्शाता है।
बुढ़ापे में आपने जो संस्कार बच्चों को दिए हैं वही आपकी रक्षा करेंगे।
आज हमने सोच बदल दी है। नामकरण, विवाह, सगाई, जन्मदिन और वैवाहिक सालगिरह जैसे मांगलिक संस्कारों पर गणेश पूजन, ग्रह पूजन, देव कथा, प्रीति भोज आदि छोड़ कर हमने इनको बड़े बड़े होटल, रेस्तरां में बर्थ-डे और एनिवर्सरी फंक्शंस में बदल डीजे की धुन पर थिरकना शुरू कर दिया ।
शिक्षा और संस्कार एक दूसरे के पूरक हैं। शिक्षा, मनुष्य के जीवन की दिशा और दशा दोनों बदल देती है तो संस्कार जीवन का सार है जिसके माध्यम से मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण और विकास होता है।
शिक्षा का अंतिम लक्ष्य सुंदर चरित्र है। शिक्षा मनुष्य के व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का पूर्ण और संतुलित विकास करता है। पहले शिक्षा में
अनुशासन, आत्मसंयम, उत्तरदायित्व, आज्ञाकारिता विनयशीलता, सहानुभूति, सहयोग, प्रतिस्पर्धा आदि गुणों के विकास पर विशेष ध्यान दिया जाता था। शिक्षा का तात्पर्य सिर्फ किताबी ज्ञान ही नहीं बल्कि चारित्रिक ज्ञान भी होता है जो आज के इस भाग दौड़ भरी जिंदगी में हम भूल चुके हैं।
आज हमने बच्चों को माडर्न बनाने के चक्कर में अंग्रेजी का पाठ तो रटा दिया पर वैदिक संस्कृति को भुला दिया। अब बच्चे न तो झुक कर पांव छूना चाहते हैं और न हाथ जोड़कर नमस्कार करना। हां अपने से बड़ों के साथ भी हाथ मिलाने को आगे बढाना याद रहता है। पहले
“प्रातःकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥
आयसु मांगि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा॥”
बच्चों को हमने स्वयं पथभ्रष्ट किया है। उन्हें
इंग्लिश की हम्पटी डम्पटी पोइट्री तो याद है पर प्रभावोत्पादक महामृत्युंजय मंत्र नहीं। मंदिर हम जाना पसंद नहीं करते। धार्मिक उपदेश हमे दकियानूसी लगते हैं। हम क्या थे क्या हो गये हैं।विचारणीय है। हमने सामाजिक व्यवहार को तिलांजलि दे दी।
चरित्र निर्माण शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य है।
तथाकथित आधुनिकता के अंधानुकरण में हम अपनी जड़ों से स्वयं ही उखड़ रहे हैं। हमने अपने रीति रिवाज, अपनी परंपराएं, अपने संस्कार, अपनी भाषा, अपना पहनावा – ये सब कुछ पिछड़ापन समझकर त्याग दिया! हमने अपनी उन स्थापित मान्यताओं को तिलांजलि दे दी। संस्कारों से पूरी दुनिया जीती जा सकती है लेकिन यदि हमारे अंदर अहंकार आ गया तो जीता हुआ भी गंवा सकते हैं। रावण अनेक शास्त्रों और शस्त्रों का ज्ञाता था परन्तु वह अहंकारी था। जब उसका घमंड टूटा तो उसने बताया कि
सुर रंजन भंजन महि भारा। जौं भगवंत लीन्ह अवतारा॥
अहंकार और संस्कार में यही अंतर है कि अहंकार दूसरों को झुका कर खुश होता है और संस्कार स्वयं झुक कर दुनिया को खुशी देता है।
अतः हमारे पास श्रेष्ठ जन्मजात संस्कार हैं। हमारे पास समृद्ध संस्कृति, गौरवशाली इतिहास और उत्कृष्ठ परंपराएं हैं। बस हमारे पांव जमीन पर टिके रहने चाहिए।