सुना है मेरा घर हो रहा है जर्जर
शायद टूटने लगा है उसका सब्र
खिसकने लगे हैं तेरी पठालें
दरकने लगी है दीवारें,
निकल गयी है लिपाई की मिट्टी
जंक से काले पड़ गये ताले |
उग चुकी है छत पर घास
साँप बिच्छुओं का हो चुका वास,
तुझसे भी ऊँची हो चुकी झाडि़याँ
करने लगे सभी तेरा उपहास |
क्यों कहते होंगे लोग तुझे बेजान
लेकिन मै जानता हूँ है तुझमे प्राण
क्योंकि तू बोलता है, बुलाता है
पुकारता है, दहाड़ता है |
बेजान प्राणहीन तो हम है
जो न सुन पाते है तेरी सिसकियाँ,
ना चीर पाते हैं तेरे आँगन का सन्नाटा
और ना तोड़ पाते हैं तेरी खामोशियाँ |
लेकिन तू विशाल है बडा़ रहेगा
अढिग है अढा़ रहेगा
स्थिर है खडा़ रहेगा|
सहा है तूने धरती का कंपना
सहा है तूने बादलों का फटना,
और सहे आँधी के तेज थपेड़े
धूप मे सहा है तूने तपना |
हाँ जब भी मै लड़खडा़या
तूने मुझे चलना सिखाया,
लेकिन टूटना तेरी फितरत नहीं
और शायद जुड़ना तेरी किस्मत नहीं |
लेकिन मै आउँगा और जरूर आऊँगा
चुकाने तेरा उधार
करने तेरा जीर्णोद्धार
इससे पहले कि टूटे तेरा सब्र
इससे पहले कि बने तू खण्डहर
हाँ मै आऊँगा जरूर आऊँगा ||
✍️सतीश बस्नुवाल
दिगोलीखाल, पौडी़ गढ़वाल