उत्तराखण्डी लोक-संगीत को विश्व पटल पर इक नई पहचान दिलाने वाला गीतः गुलाबी शरारा

Geet par bawal
लेखक : प्रकाश चौहान

हाल ही में उत्तराखण्ड का एक ऐसा पहाड़ी लोक-गीत जिसने बाॅलीवुड के गानों को पीछे छोड़ते हुए पूरी दुनिया भर में प्रसिद्धि का डंका बजाया है। गुलाबी शरारा टाइटिल का यह गीत आज विश्व मंच पर उत्तराखण्ड के पहाड़ी लोक संगीत का परचम लहरा रहा है। तीन मिनट अट्ठावन सेकेण्ड का यह सुंदर गीत यूट्यूब पर 5 अगस्त 2023 को यंग उत्तराखण्ड ग्रुप चैनल के माध्यम से रिलीज हुआ था। शुरूआती समय में यह गीत सामान्य प्रसिद्धि ही हासिल कर सका था, किंतु अचानक नेपाली मूल की सिक्किम में निवास करने वाली भाविका प्रधान नामक एक लड़की, जो कि पेशे से एक फिटनेस कोच हैं, ने अपने मित्र के सुझाव पर इस गाने में डांस करके इंस्टा रील बनाई, बस फिर क्या था, उसके बाद इस पहाड़ी गाने ने कभी रूकने और थमने का नाम ही नहीं लिया। इस गाने के धुन पर बच्चे-बूढ़े, महिला-पुरूष, हर आयु वर्ग के लोग, भारत के कोने-कोने उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम एवं पूरी दुनिया भर की हर पीढ़ी थिरकती हुई नजर आई। इस गाने के संगीत और कोरियोग्राफी में कुछ इस तरह सांमजस्य बिठाया गया था कि करोड़ो लोगों ने इस गाने पर इंटरनेट के विभिन्न प्लेटफाॅर्म पर शॉर्ट्स व रील बनाकर अपलोड किये और इस प्रकार यह गाना देखते देखते यूट्यूब पर 1 करोड़ चालीस लाख व्यूज पाकर इण्डिया के शीर्ष 100 गानों में से आठवें नंबर पर शुमार हुआ। वास्तव में इतनी अभूतपूर्व प्रसिद्धि हासिल करने वाला यह पहला एकमात्र उत्तराखण्डी पहाड़ी लोक-गीत है। इसी प्रकार इससे पूर्व कुछ अन्य उत्तराखण्डी लोक-गीतों यथा फ्वां भागा रे, चैतै की चैत्वाली, थल की बजार व फ्योंलड़िया इत्यादि को भी सोशल मीडिया के माध्यम से खूब प्रसिद्धि मिली थी।

यह गाना कुमाऊँ क्षेत्र के गिरीश जीना, जो कि जिम काॅबेट नेशनल पार्क के स्वागती कक्ष में कार्यरत हैं, द्वारा महज संयोगवश लिखा गया। एक रोज जब उनकी पत्नी द्वारा उनसे शरारा दिलाने की मांग की गयी तो यह विचार कुछ अन्य कल्पनाओं सहित उनके मन-मस्तिष्क में ऐसे कैद हुआ कि उनकी लेखनी से गुलाबी शरारा नामक गीतमाला की रचना हो गयी। शरारा एक पहाड़ी पारंपरिक पोशाक है जिसे सामान्यतया लंहगा अथवा घाघरे से मिलते-जुलते परिधान के तौर पर समझा जा सकता है। अक्सर कवि अथवा लेखकों की यही मूल प्रवृत्ति होती है कि वह अपने आस-पास, परिवेश में घटित होने वाली स्थूल व सूक्ष्म घटनाओं को बारीकी से ऑब्जर्व कर कुछ न कुछ सृजन करने की दिशा में अंतर्मुखी भाव से निरंतर चिंतन-मनन किया करते हैं। उनकी इस रचना को प्रोड्यूसर जितेन्द्र रावत द्वारा जनपद अल्मोड़ा के सुप्रसिद्ध कुमाऊँनी लोक-गायक इंदर आर्या को अपनी आवाज देने हेतु प्रस्तावित किया गया। इंदर आर्या उत्तराखंडी लोक-संगीत में एक ऐसा जाना-पहचाना नाम है, जो अपने कई सूपर-हिट पहाड़ी गीतों के जरिए लोगों के दिलों पर पहले से ही राज करते आये हैं। वह पूर्व में लगभग 15-20 साल से होटल इण्डस्ट्री में शेफ का कार्य किया करते थे। उन्होंने 15 अगस्त 2018 को पटियाला के स्टूडियो में अपना पहला गाना रिकाॅर्ड कर पहाड़ी लोक-संगीत की दुनिया में डेव्यू किया। उसके बाद उन्होंने बोल हिरा बोल, तेरो लहंगा क्या भलो छाजरो, हे मधु इत्यादि कई सूपर-हिट गाने गाकर खूब प्रसिद्धि व सुर्खियां हासिल की। इनमें से तेरो लहंगा क्या भलो छाजरो नामक गीत उनके द्वारा स्वयं लिखा गया। शादी हो या कोई भी समारोह, डी०जे० पर उनके इन गानों की खूब धूम मची रहती है। गुलाबी शरारा गाने के सुपर-डुपर हिट होने की मुख्य वजह इसका संगीत, इसके बोल व गायिकी के अतिरिक्त इसकी कोरियोग्राफी भी रही है, जो अंकित कुमार के द्वारा की गयी है। इस गाने को अशीम मंगोली के द्वारा बेहद खूबसूरत अंदाज में संगीत दिया गया, जो इसके बोल के साथ सटीक ताल-मेल बिठाता है। इस गाने के शुरूआती बोल ठुमक-ठुमक जब हिटि छै, तू पहाड़ी बाटों मा, ने सच में बडे़-बड़े सेलेब्रिटीज को रील बनाने और थिरकने पर मजबूर कर दिया।

कुछ ही दिन पहले अचानक से यह गाना यूट्यूब प्लेटफाॅर्म से कॉपीराइट स्ट्राइक होने की वजह से संबंधित चैनल से यूट्यूब एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा हटा दिया गया। इस पर गायक इंदर आर्या, समूची प्रोडक्शन टीम व उनके प्रसंशकों को जाहिर तौर पर कुछ निराशा तो हुई होगी, मगर उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अभूतपूर्व प्रसिद्धि तो मिल ही गयी है। सूत्रों से ऐसी खबर आयी कि उत्तराखंड के ही किसी व्यक्ति अथवा समूह द्वारा ईर्ष्या-द्वेष के वशीभूत होकर ऐसे शर्मनाक कार्य को अंजाम दिया गया होगा। ऐसा कहा जा रहा है कि उनके द्वारा यूट्यूब कॉरपोरेशन को यह सूचना प्रेषित की गयी कि यह गाना उत्तराखंड के किसी अन्य गाने से सादृश्यता व समानता के मद्देनजर कॉपीराइट एक्ट के दायरे में आता है, जिस पर यूट्यूब के द्वारा यह गाना चैनल से रिमूव कर दिया गया

जबकि अगर देखा जाय तो वास्तव में किसी क्षेत्र विशेष की लोक कला, लोक संगीत, बोली-भाषा और संस्कृति में कुछ न कुछ मायनों में समानता का एक विशेष प्रभाव अनिवार्य रूप से देखने को तो मिलता ही है। इसी प्रकार लोक-गीत हों चाहे बाॅलीवुड के गाने, हमेशा हजारों और लाखों की संख्या में बनाये जाते हैं, तो इन गानों में ताल, तुक, लय अथवा छन्द में तनिक समानता तो मिल ही सकती है। परंतु किसी के द्वारा उस समानता के प्रभाव को कॉपीराइट नाम दे दिया गया, जो कि बेहद निराशाजनक और खेदजनक विषय है। ऐसा अक्सर हम व्यावहारिक दुनिया में पाते हैं कि लोग ईष्र्या के भाव से खुद को जलाकर दूसरों की उन्नति और प्रगति में रोड़े अटकाने की बुरी मंशा का भाव सदा मन में रखते हैं। परंतु ऐसे कुटिल इरादों का प्रभाव क्षणिक और अप्रभावी ही होता है। किसी संघर्षशील व्यक्ति की मेहनत व लगन उसे अवश्य ही एक न एक दिन शीर्ष मुकाम तक पहुँचाती है। इस परिप्रेक्ष्य में मैं भी अपनी ओर से यही दुआ करना चाहता हूँ कि भाई इंदर आर्या जी का गुलाबी शरारा नामक गीत पुनः यूट्यूब पर रीटेन होकर यूं ही फिर से श्रोताओं और दर्शकों के दिलों पर हमेशा राज करता रहे।

इस समसामयिक घटनाक्रम के सतह पर आने की विशेष वजह यह भी रही है कि इस गाने ने उत्तराखंडी लोक-संगीत व संस्कृति को विश्व स्तर पर निश्चित रूप से एक नई पहचान दिलायी। हम सब उत्तराखंडी भाई-बंधु पहाड़ी अंचलो के निवासी होते हुए भी क्षेत्र विशेष यथा मंडल, जनपद इत्यादि के नाम पर एक दूसरे की टाँग खींचने में लगे रहते हैं। कभी गढ़वाल-कुमाऊँ आंचलिक सीमाओं के बीच में, तो कभी दो जनपदों की भौगोलिक सीमाओं के बीच में एक-दूसरे के प्रति नफरत और घृणा का भाव मन में लिए अपनी संकीर्ण मानसिकता को तृप्त करते रहते हैं। जबकि भौगोलिक सीमायें तो बेहतर प्रशासनिक प्रबंधन के उद्देश्य से अंकित की गयी महज काल्पनिक व सांकेतिक रेखाएं हैं और हम इन्हें इतनी गंभीरता से दिल पर ले बैठते हैं कि आपसी प्रेम-भाईचारे को भुलाकर अपने ही उत्तराखंडी पहाड़ी बंधु-बान्धवों के प्रति द्वेष व घृणा-भाव मन में लिए फिरते हैं। हमारा ऐसा व्यवहार व आचरण और कुछ भी नहीं बल्कि हमारी संकीर्ण मानसिकता का ही द्योतक है।

हम मनुष्य अक्सर अपने मूल स्वभाव से मजबूर होते हैं, हमारा बस एक ही एक-सूत्रीय कार्यक्रम होता है कि अपनी श्रेष्ठता के किले किसी अन्य के ऊपर गाड़ना, जो भी हमें अपने से जुदा व विजातीय वर्ग का नजर आये। प्रायः हम अपने अहंकार और नकारात्मकता के ज्वालामुखी को प्रस्फुटित करने हेतु अपने आस-पास निरंतर विजातीय वर्ग की तलाश में रहते हैं। यदि हमें कोई सजातीय वर्ग का मिल जाता है तो उसके सम्मुख हमें अपने से विजातीय वर्ग की निंदा करने में बड़े ही आनंद की अनुभूति होती है। यह इंसान की जन्मजात फिदरत ही होती है कि वह अपनेआप से सम्बंधित चीजों को श्रेष्ठ व दूसरे से सम्बंधित वस्तुओं को प्रायः गौण ही समझता है। हर व्यक्ति अपनी-अपनी बिरादरी, समूह और समजात वर्ग का निर्माण कर आजीवन उसकी सुरक्षा में ही लगा रहता है। इस प्रकार कोई क्षेत्र विशेष अथवा भौगोलिक सीमा यथा पहाड़ी-मैदानी, कोई गढ़वाली-कुमाऊँनी, कोई टिहरी-पौड़ी, कोई बोली-भाषा व संस्कृति, कोई धर्म, जाति, मजहब, नस्ल, संप्रदाय के आधार पर, कोई आर्थिकी के आधार पर, कोई आई०ए०एस० लाॅबी व पी०सी०एस० बिरादरी के आधार पर तो कोई सरकारी अथवा संविदा प्रकृति जैसे लोक सेवा नियोजन इत्यादि अनगिनत तरीकों के आधार पर मनुष्यता में विभेद करता है। सामाजिक समरसता और समानता तब तक हरगिज नहीं आ सकती जब तक तथाकथित सजातीय-विजातीय वर्गों अथवा कट्टर समूहों के किले ढह नहीं जाते और आपस में यादृच्छा मिश्रित होकर एक दूसरे का समुच्चय नहीं बन जाते।

जब हमारे मन में किसी विषय को लेकर अनेकों बायस होते हैं तो हम चीजों की स्वतंत्र व निष्पक्ष परख करने में असमर्थ रहते हैं। इस दुनिया में लोक कला की हजारों व लाखों विधाएं हो सकती हैं, उन सभी विधाओं की खूबसूरती को ऑब्जर्व करने हेतु हमें पर्वाग्रहों से रहित मानस और बुद्धि को धारण करने की आवश्यकता होती है। कला तो कला होती है, उनमें किसी भी पहलू को लेकर विभेद नहीं किया जा सकता है। कला अपने अंदर विभिन्नताओं को समेटे हुए सार्वभौमिक होती है। मैनें प्रायः नोटिस किया है कि लोक-कलाकार मंच के नैपथ्य के पीछे गढ़वाल, कुमाऊँ, जौनसार-बावर व टिहरी-पौड़ी जैसी छुद्र मानसिकता के प्रभाव में आकर लड़ते-झगड़ते रहते हैं। निस्संदेह इस प्रकार की मानसिकता से दिल को बहुत ठेस पंहुचती है। कलाकारों के बीच में आपसी वैमनस्य बढ़ता है। कोई किसी भी क्षेत्र, राज्य, देश और दुनिया का निवासी क्यों न हो, यदि वह एक उत्कृष्ट कलाकार है तो अवश्य ही उसकी कला को सराहा जाना चाहिए। वास्तव में एक अच्छे कलाकार के लिए स्वतः ही दिल से प्रसंशा के शब्द निकल जाते हैं।

सचमुच खूबसूरती तो मानव सभ्यता में तब ही नजर आ सकती है जब सभी संस्कृति, बोली-भाषा, परंपरा, धर्म-संप्रदाय के लोग एकता के सूत्र में बंधकर आपसी प्रेम और भाईचारे से अपना जीवन-यापन करें। विभिन्नता में एकता का भाव होना अति आवश्यक है, तभी समन्वित व समेकित समाज की नींव रखी जा सकती है। मनुष्य न जाने क्यों इस धरती की माटी पर अपना एकाधिकार जताना चाहता है। वह जिस परिवेश, प्रकृति, आवास, आवरण व पर्यावरण के निश्चित दायरे में पैदा होता है, वहां की आबोहवा, जल, जंगल, जमीन, संसाधन, संस्कृति व परंपराओं पर अपनी मोनोपाॅली हासिल करना चाहता है। जबकि हम मनुष्य परमात्मा के द्वारा बोये गये बीजों की परिणति के रूप में ही भिन्न-भिन्न भोगोलिक परिवेशों में जन्म लेते हैं।

यदि हम इक पल के लिए कल्पना करें तो इस जीव-जगत में ऐसा भी संभव हो सकता है कि हम अगले जन्म में अंटार्कटिका महाद्वीप में एक पेंगुइन पक्षी के रूप में जन्म लें। इसलिए छुद्र व संकीर्ण मानसिकता का त्याग कर व्यापक दृष्टि को अपनाने की आवश्यकता है। इस वैज्ञानिक युग में विश्व-बंधुत्व की भावना के प्रसार और विश्व एक मंदिर की संकल्पना को साकार किये जाने की आवश्यकता मुझे प्रतीत होती है। वास्तिकता में हम किसी जनपद अथवा मण्डल के निवासी होने से पहले पहाड़ी प्रेदशवासी हैं, पहाड़ी होने से पहले हम निश्चित तौर पर उत्तराखण्डी हैं, उत्तराखण्डी होने से पहले हम भारतवासी हैं, भारतवासी होने से पहले हम एशिया महाद्वीप के वासी हैं एवं उससे भी पहले हम इस पृथ्वी ग्रह, सौर मण्डल एवं मिल्कीवे गैलेक्सी के निवासी हैं। न जाने हम अज्ञानतावश अहंकार के वशीभूत होकर अपनी ग्लोबल पहचान क्यों भूल जाते हैं। इस लेख के माध्यम से मैं सभी पाठक जनों से अपील करना चाहता हूँ कि सरहदों और सीमाओं पर नफरत व घृणा के बजाय प्रेम के गुलशन बसाये जांय, ताकि क्षेत्रीय सीमा, राष्ट्रीय सीमा अथवा अंतर्राष्ट्रीय सभी सीमाओं पर मानवता के प्यार का पैगाम प्रसारित हो सके।

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